किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
हिन्दुस्तान ने वैसा जलसा शायद ही पहले देखा हो. साल 2019 के सितंबर महीने की सात तारीख़ थी. रात के एक बजे के आस-पास का वक़्त. आम तौर पर नींद की आग़ोश में पूरी तरह समा जाने का वक़्त होता है ये. पर उस रोज़ पूरा मुल्क ही गोया, टेलीविज़न की स्क्रीन के सामने चिपका हुआ था. तमाम समाचार चैनलों और दूरदर्शन पर भी, वाक़ि’अे का सीधा प्रसारण हो रहा था. समाचार चैनलों के एंकर जितनी तेजी से उस वाक़ि’अे की पल-पल की ख़बर दे रहे थे, घड़ी की सुइयां उससे तेज भाग रही थीं. और देखने वालों की धड़कनें शायद उससे भी तेज. कि तभी रात के क़रीब 1.37 बजे इसरो भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान के कमान सेंटर से आवाज़ गूंजी, ‘रफ़ ब्रेकिंग ऑफ ‘विक्रम’ लैंडर बिगिंस’. यानी आम ज़बान में कहें तो ‘बेहद तेजी से चंद्रमा की तरफ़ भाग रहे ‘विक्रम’ लैंडर की रफ़्तार कम करने के लिए इमरजेंसी ब्रेक लगाने की प्रक्रिया शुरू हुई है’.
जी जनाब, यह चंद्रयान-2 मिशन की दास्तान है. इसके तहत हिन्दुस्तान ने वह करने की कोशिश की, जो दुनिया में अब तक कोई न कर सका था. इसरो ने इसके जरिए ‘विक्रम’ मशहूर वैज्ञानिक विक्रम साराभाई के नाम पर नामकरण नाम का एक उपकरण बहुत आहिस्ता से सॉफ्ट लैंडिंग चंद्रमा के दक्षिणी-ध्रुव पर उतारने का मंसूबा बांधा था. चंद्रमा का दक्षिणी-ध्रुव यानी वह जगह, जिसके बारे में आज तक किसी को कुछ पता नहीं है. इंसान तो क्या, कोई छोटा-मोटा उपकरण तक वहां नहीं पहुंच सका है. कहते हैं, क़रीब-क़रीब पूरे ही वक़्त वहां अंधेरा रहता है. हिन्दू मज़हब में तो इस जगह को ‘पितृ-लोक’ भी कहा जाता है, जहां इंसानों के पुरखे रहा करते हैं. तो जनाब, वहां उतरना था ‘विक्रम’ को और वह भी दबे पैर, चुपके से. इस ‘विक्रम’ के भीतर एक रोबोट रखा हुआ था. नाम रखा गया था उसका ‘प्रज्ञान’, यानी कि ‘विवेक-बुद्धि या प्राप्त किया गया ज्ञान
चंद्रमा की सतह पर ‘प्रज्ञान’ का काम यही था, ज्ञान प्राप्त करना. जब तक सांसें रहतीं विज्ञान की ज़बान में बैटरी-लाइफ़ तब तक उसे यह जायज़ा लेना था कि चंद्रमा के उस हिस्से ज़मीन कैसी है? आब-ओ-हवा किस तरह की है? इंसान के पुरखे या कोई और वहां रहता है क्या? वहां किसी के रहने लायक हाल भी हैं या नहीं? वग़ैरा, वग़ैरा. अलबत्ता, यह सब काम ‘प्रज्ञान’ तब कर पाता जब ‘विक्रम’ ठीक तरह से उस ज़मीन पर उतरता, जिसके बाद उसके दरवाज़े ख़ुलने थे और ‘प्रज्ञान’ को जाइज़ा लेने के लिए निकलना था. और रात 1.37 बजे ‘विक्रम’ की रफ़्तार थामने की जो क़वायद शुरू हुई थी, वह उसी सिलसिले का पहला सबसे बड़ा क़दम था. सबकी धड़कनें अब तक और बढ़ चुकी थीं. टेलीविज़न एंकरों की आवाज़ें धीमी हो गई थीं. क्योंकि इस क़वायद के दौरान कुछ भी हो सकता था. ‘विक्रम’ रास्ता भटक जाता, लुढ़क जाता, उसमें कोई टूट-फूट हो जाती.