अक्षय की इस फिल्म में दर्शक बने कठपुतली, फिल्म बनाने वालों ने डोर घुमाकर खूब की ‘चीटिंग’

अक्षय की इस फिल्म में दर्शक बने कठपुतली, फिल्म बनाने वालों ने डोर घुमाकर खूब की ‘चीटिंग’

सार-:

सिनेमा से लेकर ओटीटी तक इन दिनों इतना अक्षय, अक्षय हो गया है कि कई बार तो एक और अक्षय की फिल्म, सुनकर ही उकताहट होने लगती है। साल का अभी नौवां महीना शुरू ही हुआ है और अब तक अक्षय के नाम पर दर्शक ‘बच्चन पांडे’, ‘सम्राट पृथ्वीराज’, ‘रक्षाबंधन’ और अब ‘कठपुतली’ में भी ‘चीट’ ही हो रहे हैं।

कठपुतली रिव्यू
विस्तार

फिल्ममेकिंग में एक शब्द बहुत प्रयोग में आता, ‘चीट कर लेंगे!’ मतलब कुछ ऐसा करेंगे कि जिसे दर्शक पकड़ न पाए। मसलन, शूटिंग करते समय कोई लाइन ठीक से शूट नहीं हुई या कहीं किसी कलाकार के चेहरे के भाव सही से नहीं आए या ऐसी ही छोटी मोटी बातें। फिल्म के संपादन के समय जब ये दिक्कतें पकड़ में आती तो बिना असली लोकेशन पर जाए, कलाकार के साथ ये दृश्य मुंबई में ही या जहां वह उस वक्त होता, वहां जाकर ‘चीट’ कर लिए जाते। दाल में नमक के बराबर की ये ‘चीटिंग’ दर्शकों को भी अखरती नहीं थी। लेकिन, निर्देशक रंजीत एम तिवारी की नई फिल्म ‘कठपुतली’ शुरू से लेकर आखिर तक दर्शकों से ऐसी चीटिंग है कि जिसे लोग बरसों बरस याद करेंगे। निर्माता वाशु भगनानी ने यहां पूरी की पूरी कसौली को ‘चीट’ करके लंदन के पास किसी कस्बे में बना दिया है। लेकिन, न पेड़ों के पत्ते झूठ बोलते हैं, न इमारतें और न ही मिट्टी। ध्यान से फिल्म देखें तो समझ आएगा कि ‘कठपुतली’ में डोर इस फिल्म को बनाने वालों के हाथ में है और नाच इसे देखने वाले दर्शक रहे हैं।

कठपुतली
साउथ फिल्म की एक और रीमेक
तमिल फिल्म ‘रतासन’ जब चार साल पहले हिट हुई तो सब इसके रीमेक राइट्स के पीछे भागे। तेलुगू वालों ने इसे ‘रक्षासुडु’ नाम से बनाकर साल भर के भीतर ही रिलीज कर दिया। रफ्तार रंजीत एम तिवारी ने भी दिखाई लेकिन फिल्म बनने के बाद पता चला कि एक तमिल फिल्म को हू ब हू कॉपी कर देने के खतरे भी बहुत हैं। किसी वितरक ने फिल्म को हाथ ही नहीं लगाया। अक्षय कुमार के जुगाड़ उनके निर्माताओं के खूब काम आते हैं। डिज्नी+ हॉटस्टार वाले भी अक्षय पर मेहरबान रहते ही हैं। जब फॉक्स स्टार स्टूडियो था तो वहां अक्षय की फिल्मों की खूब सेटिंग रहती थी। फिर ओटीटी आया तो यहां भी ‘लक्ष्मी’ और ‘कठपुतली’ बेचने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती। दिक्कत होती है बस ओटीटी के ग्राहकों को जो साल भर का सब्सक्रिप्शन एक साथ देकर ‘चीट’ होते रहते हैं।
कठपुतली रिव्यू
अक्षय कुमार की एक और खराब फिल्म
सिनेमा से लेकर ओटीटी तक इन दिनों इतना अक्षय, अक्षय हो गया है कि कई बार तो एक और अक्षय की फिल्म, सुनकर ही उकताहट होने लगती है। साल का अभी नौवां महीना शुरू ही हुआ है और अब तक अक्षय के नाम पर दर्शक ‘बच्चन पांडे’, ‘सम्राट पृथ्वीराज’, ‘रक्षाबंधन’ और अब ‘कठपुतली’ में भी ‘चीट’ ही हो रहे हैं। लाइन में उन जैकलीन फर्नांडीज के साथ बनी उनकी फिल्म ‘रामसेतु’ भी है जो कथित चीटिंग के अपने जोड़ीदार सुकेश चंद्रशेखर के साथ किसी भी दिन हवालात में दिखाई दे सकती हैं। खैर, लौटकर फिल्म ‘कठपुतली’ पर आते हैं जिसमें हर कलाकार कैमरे के सामने बढ़िया एक्टिंग की ‘कोशिश’ करता दिखता है। सिनेमा इसके उलट है इसमें एक कल्पना को कुछ इस तरह परदे पर उतारना होता है कि वह असल जिंदगी जैसी लगे। एक्टिंग की मेहनत परदे पर दिखते ही मामला सुनील शेट्टी हो जाता है। और, फिल्म ‘कठपुतली’ में हर कलाकार का सुनील शेट्टी की एक्टिंग से ही कंपटीशन है।
कठपुतली रिव्यू
एक और खराब पटकथा पर बनी फिल्म
कहानी पेंचदार है। तथाकथित कसौली की घुमावदार सड़कों जैसी गोल गोल चक्कर लगाती है। फिल्म बनाने के सपने देखने वाला बंदा अपनी बहन और बहनोई के जिद करने पर अपने पिता के देहांत के बाद अनुकंपा कोटे से पुलिस की नौकरी में लग जाता है। वर्दी उसकी पुलिस की है लेकिन दिमाग उसका उसी रिसर्च में लगा रहता है जो उसने अपनी पहली फिल्म लिखने के दौरान की थी। फिल्म स्कूल जाने वाली बच्चियों की हत्याओं का सेटअप तैयार करती चलती है। दर्शकों को कभी बाएं ले जाती है, कभी दायें ले जाती है। और, क्लाइमेक्स में जब इस सेटअप के पेबैक की बारी आती है तो फिल्म हाथ खड़े कर देती है कि भैया, इत्ते में इत्ता ही हो पाया। कहने को फिल्म एक साइकोलॉजिकल थ्रिलर बताई जाती है, लेकिन इससे बढ़िया साइकोलॉजिकल थ्रिलर तो राधिका आप्टे की ‘अहल्या’ है और यूट्यूब पर फ्री में उपलब्ध है।
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रंजीत तिवारी की बस एक और फिल्म
तमिल में फिल्म ‘रतासन’ हिट रही थी। ‘हिट द फर्स्ट केस’ की ओरीजनल भी हिट ही रही थी। लेकिन, किसी अन्य भाषा की फिल्म को हिंदी में बनाने की सबसे बड़ी चुनौती होती है, हिंदी भाषी दर्शकों की रुचियों और उनकी संवेदनाओं को पकड़ना। ओवरएक्टिंग दक्षिण भारतीय सिनेमा के डीएनए में है। हिंदी सिनेमा के दर्शक इसके लिए टीवी देखते हैं। फिल्म उनको असली सी चाहिए। ‘चीटिंग’ बिल्कुल बर्दाश्त नहीं। फिल्म ‘बेलबॉटम’ में रंजीत एम तिवारी में एक काबिल निर्देशक के लक्षण दिखे थे, लेकिन इनकी कुंडली तो अगली ही फिल्म में पूरी की पूरी सामने आ गई। कहानी गड़बड़ है। कास्टिंग उससे ज्यादा गड़बड़ है। संवाद कतई असरदार नहीं हैं। ओटीटी पर दो घंटे की ये फिल्म देखना अपने आप में किसी चैलेंज से कम नहीं है।
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मिथुन चक्रवर्ती की राह पर एक और कलाकार
अक्षय कुमार धीरे धीरे अवसान के दौर के मिथुन चक्रवर्ती बनते जा रहे हैं। मिथुन उन दिनों एक ही लोकेशन पर छह छह फिल्में एक साथ शूट कर दिया करते थे। ना कहानी से उनको कोई मतलब और न ही संवादों से। वह सिर्फ पैसा देख रहे थे। देश के सबसे बड़े आयकरदाता मिथुन बने। अब यही तमगा अक्षय के पास है। परदे पर आखिरी बार अपने किरदार में वह कब दिखे, सोचना पड़ता है। फिल्म के निर्माता वाशू भगनानी की बहू बनने के ख्वाह देख रहीं रकुल प्रीत इस फिल्म में अक्षय की हीरोइन हैं। और इस एक लाइन से ज्यादा कुछ लिखने लायक उन्होंने फिल्म में किया भी नहीं है। सरगुन मेहता कड़क पुलिस अफसर बनी हैं। बताया जाता है कि वह एक बच्ची की मां भी हैं, दिखाया नहीं जाता। थियेटर के मंजे हुए कलाकार और मलयालम फिल्मों के अभिनेता सुजीत शंकर जरूर बीच में थोड़ा प्रभावित करते हैं लेकिन कनाडा के कलाकार जोशुआ लेकलेयर अपना जादू उड़ते ही फिल्म को विद्रूप कर जाते हैं।
कठपुतली रिव्यू
तकनीकी तौर पर भी फिल्म वैसी ही है जैसी फिल्में फिल्म इंस्टीट्यूट में पढ़ने वाले बच्चे खेल खेल में बनाते रहते हैं। राजीव रवि का बतौर सिनेमैटोग्राफर तो खैर ध्यान ही पूरी फिल्म में ब्रिटेन में कसौली को ‘चीट’ करने में लगा दिखता है, चंदन अरोड़ा का संपादन भी बहुत लचर है। 90 मिनट की ये फिल्म होती तो शायद देखने में इतना बोर नहीं करती। कहने को फिल्म में तनिष्क बागची, डा ज्यूस और आदित्य देव का म्यूजिक भी है, लेकिन सच पूछें तो पूरी फिल्म देखने के बाद अब मुझे इसका एक भी गाना याद नहीं आ रहा। अक्षय कुमार के बड़े वाले भक्त हैं तो फिर तो आप फिल्म देखेंगे ही लेकिन सिर्फ मनोरंजन के लिए कुछ देखना है तो कृपया ‘कठपुतली’ ना ही देखें।

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