जानिए क्या कोई इंसान इतना बड़ा हो जाता है कि उसकी तारीफ़ नहीं की जाती.

जनाब, ये साल 2009 की बात है. टेलीविज़न के पर्दे पर दो अज़ीम फ़नकार नुमायां हुए थे उस रोज़. इनमें एक थे- शा’इर, नग़्मा-निगार जावेद अख़्तर साहब. और दूसरी उनके सामने थीं- लता मंगेशकर, जिनका उस रोज़ 80वां जन्मदिन साल 1929 में इंदौर, मध्य प्रदेश में पैदा हुईं था और आज 93वां है. जावेद साहब उस रोज़ लता जी का इंटरव्यू ले रहे थे. इसकी शुरुआत उन्होंने कुछ इस तरह की, ‘सदियों में एकाध बार ऐसा होता है

कि कोई इंसान इतना बड़ा हो जाता है कि उसकी तारीफ़ नहीं की जाती. उसकी तारीफ़ इसलिए नहीं की जाती क्योंकि वह की नहीं जा सकती. ऐसे शब्द ही नहीं होते. और उसकी तारीफ़ करने की कोई ज़रूरत भी नहीं होती. कोई नहीं कहता है कि शेक्सपियर बहुत अच्छा राइटर था. कोई नहीं कहता है कि माइकल एंजिलो बहुत अच्छी स्टेच्यू बनाते थे. कोई नहीं कहता है कि बीथोवन क्या म्यूज़िक बनाते थे. कोई नहीं कहता है’.

फिर जावेद साहब आगे फ़रमाते हैं, ‘…उसी तरह से, मैं समझता हूं कि जिससे आज हम बात कर रहे हैं, जिससे आज हमें मिलने का सौभाग्य मिला है, उसका नाम ही उसकी तारीफ़ है. आप किसी इंसान की इससे ज़्यादा क्या तारीफ़ कर सकते हैं, किसी सिंगर की, कि आप कहें वह तो लता मंगेशकर है’. यक़ीनन जनाब, सही फरमाया जावेद साहब ने. लता मंगेशकर किसी तारीफ़ या त’आरुफ़ की मोहताज़ नहीं हैं.

बल्कि होता तो सच में यूं ही है कि किसी गाने वाले से अगर कह दिया जाए कि वह लता जी तरह (सुरीला) गाता या गाती है, या फिर लता जी के नाम से मिलने वाला कोई अवॉर्ड उसे मिल जाए, तो वह ख़ुद पर ऊपर वाले की मेहर ही मानता है. आज भी, जब लता जी ज़िस्मानी तौर पर दुनिया में नहीं (6 फरवरी, 2022 को निधन) हैं, तब भी उनका यह रुतबा क़ायम है. बलंद है और सदियों तक ऐसा ही बना रहने वाला है. इसका भरोसा है सब को

अब जनाब ऐसी शख़्सियत के बारे में क्या उन्हीं की ज़ुबानी कुछ सुनना बेहतर नहीं होगा. तो सुन लेते हैं, ‘हमारे घर में म्यूज़िक तो सारा दिन चलता था. पिता जी (दीनानाथ मंगेशकर जी) गाते थे. उनके पास सीखने के लिए लोग भी आते थे. उनकी ड्रामा कंपनी थी. उसके रिहर्सल वग़ैरा होते थे, तो गाने ज़्यादा होते थे. तो मैं हमेशा सुनती थी पर पिता जी के सामने नहीं गाती थी. मैंने क्या किया था, हमारे घर में किचेन जो था,

बहुत बड़ा किचेन था. किचेन में एक बर्तन रखने का स्टैंड था. मैं उस पे चढ़ के बैठती थी. और मां (शेवंती जी) अगर कुछ बना रही होती थी, तो मैं उसको अपना गाना सुनाया करती थी. जोर-जोर से. पिता जी की कुछ बंदिशें या सहगल (केएल सहगल) साहब का गाना. क्योंकि मुझे सहगल साहब बहुत पसंद थे. तो मेरी मां कहती थी- मेरा सर मत खा, चली जा यहां से. तो मैं उसको सुनाया करती थी.

इस तरह मेरा गाना था’.पर क्या हुआ कि एक दिन मेरे पिता जी किसी को गाना सिखा रहे थे. शाम का वक़्त था. तो मेरे पिता जी ने कहा कि तुम ज़रा रियाज़ करो. मैं जा के आता हूं. तो वे निकल गए. उस वक़्त मैं गैलरी में खेल रही थी. मैं सुन रही थी. मुझे लगता है, मैं पांच साल की थी तब. तो वो गा रहा था. उसने जो शुरू किया, मुझे अच्छा नहीं लगा. मैं अंदर गई और उससे कहा कि ये अच्छा नहीं है. बाबा ऐसा नहीं गाते हैं. ऐसा गाते हैं. मैंने गा के बताया. मेरे पिता जी इतने में आ गए.

उन्होंने बाहर से सुना. सुन के अंदर आए, तो मैं भागी वहां से. तो मेरे पिता जी ने मेरी मां को कहा कि घर में गवैया बैठा है और मैं बाहर क्यूं सिखा रहा हूं लोगों को. और दूसरे दिन सुबह छह बजे उन्होंने मुझे उठाया. कहने लगे- तानपूरा उठाओ और बैठो मेरे सामने. मैं तो बहुत छोटी थी तब. तो जो मैंने रात को उसको (पिताजी के शाग़िर्द को) सिखाई थी, वही उन्होंने स्टार्ट किया’.‘मैं जब नौ साल की थी तो एक ऐसा वाक़ि’आ हुआ कि कुछ लोग मेरे पिता जी के पास आए. हम लोग सोलापुर में थे. वहां हमारी कंपनी थी. ड्रामा कंपनी और वहां उनके शोज़ होते थे, पिता जी के. तो मैं खेल रही थी,

तभी उन्होंने आ के कहा- दीनानाथ साब हम लोग चाहते हैं कि आपका एक क्लासिकल प्रोग्राम इसी थिएटर में करें. तो बाबा ने कहा- ठीक है करो. तब उन लोगों के जाने के बाद मैं बाबा के पास गई. मैंने कहा- मैं आपके साथ गाना चाहती हूं. तो उन्होंने कहा- तू क्या गाएगी. तू तो इतनी सी है. तुझे आएगा भी नहीं समझाने में. मैंने कहा- मैं गाऊंगी ज़रूर. तो कहने लगे- कौन सा राग गाएगी? तो मैंने कहा- खंबावती गाऊंगी, जो आप सिखा रहे थे. तो कहने लगे- अच्छी बात है.

तो रात को जो शो था हमारा, तो मेरे पिता जी ने कहा- तू पहले गा. तो मैं जा के गाने के लिए बैठी. गाया मैंने. लोगों को बहुत अच्छा लगा. फिर पिता जी आए और वो बैठे. मैं उनके पास बैठी रही. वे गा रहे थे, तो मैं उनकी गोद में सर रख के सो गईमेरा पहला गाना रिकॉर्ड हुआ, (19)42 मार्च में. वो ऐसे हुआ कि मराठी पिक्चर थी, ‘किती हसाल’. और उसका म्यूज़िक जो कर रहे थे, उनका नाम सदाशिवराव नेवरेकर था. वो मेरे पिता जी के साथ ड्रामा में काम करते थे.

तो वो आए. उन्होंने पिता जी से कहा- एक पिक्चर बन रही है. मैं उसमें म्यूज़िक कर रहा हूं. मैं चाहता हूं, तुम्हारी बेटी मेरी पिक्चर में गाए. तो मेरे पिता जी ने कहा- नहीं, मैं उसको सिनेमा-विनेमा में डालना नहीं चाहता हूं. मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता है, तो तुम ये बात भूल जाओ. तो उसने कहा- नहीं, नहीं, तुम्हें मेरी दोस्ती का वास्ता है. तुम एक गाना इस लड़की से मुझे गवाने दो. तो फिर मेरे पिता जी के कहा- अच्छा ठीक है. मैं गई, उनका गाना गाया. गाना रिकॉर्ड हो गया, पूना में. मैं उससे पहले क्लासिकल प्रोग्राम करती थी, पिता जी के साथ. तो उतना डर नहीं लगा.

वसंत जोगलेकर उसके डायरेक्टर थे. उस ज़माने में सुवर्णलता कर के एक हीरोइन थीं. वो थीं वहां पे. गाना गा के मैं शाम को वहां से निकल आई. ये बात मार्च की है. अप्रैल में मेरे पिता जी की डैथ हुई. पिता जी की डैथ होने के बाद दूसरा कोई, मेरे पास ये नहीं था कि मैं घर में पैसे कैसे लाऊं. क्योंकि हम लोग चार बहनें, एक भाई. मैं ही सबसे बड़ी. मां बहुत ये हो गई थी, परेशान. तो मेरे पास मास्टर विनायक (अदाकारा नंदा के पिता) आए

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