डिज़ाइन’ के बजाय ‘डिज़ायर’ पर चलने और संगीत रचने वाले दास्तान-गो :सलिल चौधरी
किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार,
1958 साल कि बात है ये. अमेरिका के लॉस एंजिलिस का वाक़ि’आ है. वहां इंडियन म्यूज़िक इंस्ट्रूमेंट्स की एक दुकान होती थी. अमेरिका में अपनी तरह की इक़लौती. बताते हैं, दुकान के मालिक थे डेविड बर्नार्ड. तो जनाब, एक दिन 35-36 साल का हिन्दुस्तानी नौजवान उनकी दुकान पर आया. ग़ौर से वह साज़ों को देखने लगा. साधारण से कपड़े पहने था. इसलिए स्टाफ़ उसकी तरफ़ से बे-परवा. फिर भी, रस्मी तौर पर, एक सेल्स गर्ल उसके पास आई. क्रिस्टीना नाम था उसका. वह नौजवान से बोली, ‘कहिए, मैं क्या मदद करूं आपकी’. नौजवान ने उससे सितार देखने की ख़्वाहिश की. क्रिस्टीना ने पूरा कलेक्शन दिखा दिया. उसमें से नौजवान को एक सितार पसंद आया. उसने कहा, ‘वो ज़रा उतार दीजिए’. उतारना मुश्किल था. सो, क्रिस्टीना ने टालने की कोशिश की.
लेकिन नौजवान ज़िद पर अड़ गया कि उसे तो ‘वही सितार चाहिए’. तब तक दुकान के मालिक डेविड भी आ गए. उन्होंने नौजवान की बात को सुना, समझा और उनके कहने पर वह सितार उतारा गया. तब भी क्रिस्टीना टोकते हुए बोली, ‘इसे बास-सितार कहते हैं. आम सितार-वादक इसे बजा नहीं सकते. ये बड़े-बड़े शो में इस्तेमाल होता है’. वह नौजवान बोला, ‘आप इसे बास-सितार कहिए. मगर हम इसे ‘सुरबहार’ कहते हैं. क्या मैं बजाकर देख सकता हूं’? डेविड ने नौजवान का दिल नहीं तोड़ा. सितार बजाने की उसे इजाज़त दे दी. नौजवान ने सितार के तार कसे. उसे सुर में मिलाया और बैठकर जो बजाना शुरू किया तो ऐसा बजाया कि वहां तमाम लोग जमा हो गए. जब राग पूरा हुआ तो माहौल में सन्नाटा था. लोग समझ नहीं पा रहे थे कि ताली बजाएं या मौन रहें.
इतना जादुई संगीत सुना था उन्होंने अभी. डेविड तो इतने भावुक हो गए कि वे फ़ौरन नौजवान से पूछ बैठे, ‘भाई, आप हो कौन?. मैंने रविशंकर को सुना है. उन जैसा सितार कोई नहीं बजाता. लेकिन आप उनसे कहीं भी कम नहीं रहे. मैं धन्य हो गया जो आप मेरी दुकान पर आए. कहिए, मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं’. तब उस नौजवान ने कहा, ‘मैं ये सितार ख़रीदना चाहता हूं’. ज़वाब में डेविड ने कहा, ‘आपको ख़रीदने की ज़रूरत नहीं है. मेरी तरफ़ से ये तोहफ़ा है आपके लिए. क़ुबूल कीजिए’. और क्रिस्टीना तो रो रही थी. कुछ देर बाद जब संभली तो उसने एक डॉलर का नोट देते हुए उस नौजवान से कहा, ‘मैं हमेशा भारतीयों को कम आंकती थी. लेकिन आपने मेरी सोच बदल दी. मैं नहीं जानती आपसे फिर मुलाक़ात होगी या नहीं. इसलिए आप इस नोट पर कुछ लिख दीजिए. मेरे लिए, निशानी के तौर पर’. तब उस नोट पर नौजवान ने नाम लिखा, ‘सलिल चौधरी’.
बिना तयशुदा ‘डिज़ाइन’ के सिर्फ़ ‘डिजायर’ यानी इच्छा-मात्र से निकाली अपनी धुनों से लोगों को मुरीद बना लेने वाले का नाम है सलिल चौधरी. लोग प्यार से उन्हें सलिल-दा कहा करते थे. सलिल-दा, जिनके लिए कई हिन्दुस्तानी और पश्चिमी साज़ खिलौने होते थे. बचपन से ही. उन्होंने ख़ुद एक बार इंटरव्यू में ऑल इंडिया रेडियो पर बताया था, ‘पिता जी असम में डॉक्टर थे. लेकिन उन्हें संगीत से बड़ा लगाव था. ख़ासकर पश्चिम के शास्त्रीय संगीत से. उनके पास बड़ा संग्रह था, पश्चिम के शास्त्रीय संगीत का. बड़े भाई भी संगीत के शौक़ीन. उन्होंने तो संगीत को ही करियर बनाया. सो ज़ाहिर है, बचपन से मैंने भी संगीत को अपने खून में पाया. पांच, छह बरस का था, तो बांसुरी बजाता था. भाई से पियानो सीखता था. हारमोनियम, सुरबहार, इसराज (सारंगी जैसा प्राचीन वाद्य-यंत्र), वॉयलिन, ये सब भी सीखे और बजाए भी खूब’.
‘कॉलेज पहुंचते-पहुंचते संगीत बनाना शुरू कर दिया था. उसी समय पहला संगीतबद्ध गीत लोकप्रिय हुआ- ‘बिचारपति तोमार बिचार’. फिर कॉलेज की पढ़ाई के लिए कलकत्ते आ गया. वहां बड़े भाई पहले से ऑर्केस्ट्रा क्लास के डायरेक्टर के रूप में काम कर रहे थे. सो, ज़ाहिर तौर पर वहां भी संगीत और पढ़ाई-लिखाई साथ-साथ चल रही थी. ऐसे में कोई भी संगीत, वह चाहे हिन्दुस्तानी हो, पश्चिम का या लोक-संगीत, अजनबी नहीं लगा मुझे. यहां तक कि पश्चिम के लोक-संगीत से मेरी वाबस्तगी हो चुकी थी. अमेरिकी, रसियन, हंगेरियन और ऐसे पश्चिम के कई मुल्कों का लोक-संगीत मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में जगह बना चुका था. हिन्दुस्तान के आस-पड़ोस के मुल्कों का भी. जैसे- नेपाली, अफ़ग़ानी वग़ैरा. आगे चलकर जब मैंने फिल्मों के लिए संगीत तैयार किया, तो ये सभी पहलू बहुत काम आए. इनका मैं भरपूर इस्तेमाल कर सका अपने संगीत में.’