रोटी के लिए काक चेष्टा और बाल चेष्टा का खेल हो रहा दुर्लभ

रोटी के लिए काक चेष्टा और बाल चेष्टा का खेल हो रहा दुर्लभ

रिपोर्ट–निशांत सिंह

बढ़ता शहरीकरण और उसके लिए बढ़ते कंक्रीट के जंगलों के बीच अब घरों की मुंडेर पर बैठ कर बच्चों के हाथों से रोटी छीनने के लिए कौवों की चेष्टा और रोटी की लालच में कौवों को अपने पास बुलाने की बाल चेष्टा का खेल अब दुर्लभ हो चला है।पुराने समय में खपरैल के घरों में बड़े- बड़े आंगन हुआ करते थे और सबेरे – सबेरे दो चार कौवे उन पर बैठकर कांव-कांव की रट लगा देते थे घरों में छोटे बच्चे हाथ में रोटी लिए कौवे को पकड़ने की चेष्टा में उन्हें ललचाकर खाते। रोटी के खत्म होने तक कौवे की चेष्टा रोटी पर और बच्चे की चेष्टा कौवे पर लगी रहती थी। गांवों में भी अब पक्के मकानों से बड़ी आंगन गायब हो गई और मुंडेर तो रह ही नहीं गई। छोटी-मोटी जो आंगन बची भी उस पर लोहे की जालियां लग गई। एक समय मुंडेर पर कौवों का बोलना मेहमान के आने की सूचना माना जाता था लेकिन आदमी के जीवन में ही इतना कांव-कांव हो गया कि कौवों की कांव-कांव पर कोई ध्यान ही नहीं देता।यह विकास खंड मछलीशहर के गांव बामी का शनिवार सुबह का दृश्य है जहां कौवा फर्श पर पड़ी रोटी पर और बालक कौवे पर अपनी चेष्टा लगाये हुए है।पूछे जाने पर गांव के बुजुर्ग शेर बहादुर सिंह कहते हैं कि उनके बचपन में यह आम बात हुआ करती थी। कौवों का बच्चों से रोटी छीनकर उड़ जाना आंगन में बैठे लोगों के लिए बड़ा ही मनोरंजक हुआ करता था। अब तो कौवों की खोज केवल श्राद्ध के दिन होती है। कौवों की संख्या भी अब पहले जितनी नहीं रही।

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