दास्तान-गो: ‘ब्रह्मपुत्र के चारण’अच्छे फ़नकार होते हैं ये लोग. समाज में ‘इज़्ज़त भी खूब होती है. इनका काम राजे-महाराजाओं की ‘विरुदावली’ गाने का होता था.
दास्तान-गो: ‘ब्रह्मपुत्र के चारण’ भूपेन हजारिका, जिनकी ‘प्रतिध्वनि’ अब भी गूंजती है
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
राजस्थान जैसे कई सूबों में एक जात होती है, ‘चारण’. अच्छे फ़नकार होते हैं ये लोग. समाज में ‘इज़्ज़त भी खूब होती है. इनका काम राजे-महाराजाओं की ‘विरुदावली’ गाने का होता था. ‘विरुदावली’ को कुल-परंपराओं का यशगान जानिए. राजे-महाराजाओं के अलावा ये फ़नकार अपने इलाकों की परंपराओं, वग़ैरा का यशगान भी करते रहे. उसे देश-दुनिया तक पहुंचाते रहे. तो जनाब, इन फ़नकारों का ये जो दूसरा वाला काम है न, देश-दुनिया तक अपने इलाके की परंपराओं, वग़ैरा का यशगान करने का, उसे हिन्दुस्तान के एक और बड़े फ़नकार ने किया. वे ‘चारण’ समाज से तअल्लुक़ तो नहीं रखते थे. फिर भी कहे जाते थे, ‘ब्रह्मपुत्र के चारण’. क्योंकि उन्होंने पूरी ज़िंदगी ब्रह्मपुत्र ‘नद’ सनातन संस्कृति में ब्रह्मपुत्र को पुरुष-रूप माना गया है से लगे उत्तर-पूर्व के इलाकों की लोक-संस्कृति, लोकगीत, लोक-संगीत को देश-दुनिया तक पहुंचाने का काम किया.
भूपेन हजारिका नाम हुआ उनका. आज हिन्दुस्तान और दुनिया के लोग असम और उत्तर पूर्व के गीत, संगीत से जितने भी वाबस्त हैं न, ज़्यादातर इन्हीं की वज़ह से. और ये अपनी पैदाइश से ही. दरअस्ल इनकी मां शांतिप्रिया अपनी लोक-संस्कृति, लोकगीत, लोक-संगीत से गहरे तक जुड़ी हुई थीं. सो, उन्होंने ही बचपन से भूपेन जी दिल-दिमाग में छुटपन से ही इसके संस्कार बिठाने शुरू कर दिए थे. या यूं कहें कि छोटे बच्चे को उसका हाज़मा वग़ैरा ठीक करने के लिए जिस तरह जनम-घुट्टी पिलाई जाती है न, वैसे इनकी मां ने इन्हें गीत, संगीत की ख़ुराक़ देनी शुरू कर दी थी. लोरियों, वग़ैरा के जरिए. और इस सबका नतीज़ा ये हुआ कि भूपेन जी को जब से भी लिखना, पढ़ना और थोड़ा-बहुत समझना आया, उन्होंने बस गीत, संगीत ही लिखा, पढ़ा. उन्हीं के नाम की एक वेबसाइट है जनाब, ‘भूपेनहजारिकाडॉटकॉम’. इसमें इनके बारे में तमाम जानकारियां दर्ज़ हैं.
बताते हैं, जब भूपेन जी महज 10 बरस के थे, तभी इन्होंने अपना पहला गीत लिख लिया था. वे असम में ब्रह्मपुत्र के किनारे बसे तिनसुकिया जिले के सदिया क़स्बे में पैदा हुए, आठ सितंबर 1926 को. तो उस हिसाब से यह 1936 के आस-पास की बात हुई. और इससे भी थोड़ा पहले किसी समाजी जलसे के दौरान इन्होंने अपनी मां का सिखाया एक गीत गाया था. अब तक इनके पिता नीलकांत जी तेजपुर आ बसे थे. वहीं की बात है ये. कहते हैं, वहां उस जलसे में ज्योति प्रसाद अग्रवाल और बिष्णु प्रसाद राभा भी थे. इनमें अग्रवाल गीतकार थे. नाटक लिखते थे और फिल्में भी बनाया करते थे. वहीं, राभा क्रांतिकारी मिज़ाज के कवि हुआ करते थे. इन लोगों ने पहचान लिया कि ये बच्चा (भूपेन जी) पैदाइशी हुनरमंद है. सो, फिर क्या था, वे इनके माता-पिता से इजाज़त लेकर इन्हें कलकत्ते ले गए. वहां इनका पहला गीत रिकॉर्ड करा दिया. वही, जो भूपेन जी ने ख़ुद लिखा था.
इससे महज तीन साल बाद, 1939 में अग्रवाल जी ने एक फिल्म बनाई, ‘इंद्रमालती’. उसमें भी भूपेन जी को मौका दिया. इस फिल्म के लिए दो गीत लिखे और गाए भी. इस तरह, जो शुरुआत हुई तो फिर वह तभी ठहरी, जब भूपेन जी की सांसे थम गईं, पांच नवंबर 2011 को. इस बीच 85 बरस की ज़िंदगी में ऐसा क्या कुछ नहीं किया इन्होंने, जिसका ज़िक्र न किया जाए. और इतना कुछ करने के लिए ऐसा भी नहीं कि पढ़ाई-लिखाई से समझौता किया. तेजपुर से पहले परिवार असम के ही धुबरी में भी रहा था कुछ साल. वहां स्कूली पढ़ाई की. फिर तेजपुर से हाईस्कूल की. गुवाहाटी के मशहूर कॉटन कॉलेज से बीए किया. फिर बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय से एमए किया राजनीति विज्ञान में. इसके बाद कुछ समय के लिए आकाशवाणी गुवाहाटी में काम किया. तभी, अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी से इन्हें एक स्कॉलरशिप मिल गई, तो वहां चले गए. पीएचडी करने.